विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम् ।
अमित्रादपि सद्वृत्तं बालादपि सुभाषितम् ॥ ॥१६॥
अमित्रादपि सद्वृत्तं बालादपि सुभाषितम् ॥ ॥१६॥
विष से भी अमृत ग्रहणीय है, अपवित्र स्थान से भी स्वर्ण, शत्रु से भी सदाचार, और बालक से भी सुबोले हुए वाक्य — ये सब ग्रहण करने योग्य हैं।
ज्ञान, मूल्य, और सौंदर्य का स्रोत केवल प्रतिष्ठित अथवा प्रिय के माध्यम से ही नहीं आता। जो वस्तु स्वभावतः उत्तम है, वह अपने स्रोत की पवित्रता या अपवित्रता से स्वतंत्र होती है। विष, स्वभावतः हानिकर होने पर भी, चिकित्सा के सन्दर्भ में अमृततुल्य हो सकता है। उसी प्रकार, अपवित्र स्थान पर पड़ा स्वर्ण भी स्वर्ण ही है — उसका मूल्य, उसकी उत्पत्ति के स्थान से कम नहीं होता। यह धारणा, कि सत्य या सौंदर्य केवल शुद्ध माध्यमों से ही मिल सकता है, आत्मवंचना का ही एक रूप है।
शत्रु, जो सामान्यतः द्वेष और अविश्वास का प्रतीक होता है, वह भी कभी-कभी सद्गुण का धारक हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति केवल मित्रों से ही सीखने को स्वीकार करता है, तो वह अपने शिक्षण को एक सीमित घेरे में बाँध देता है। विपरीततः, जो व्यक्ति शत्रु के गुणों को भी ग्रहण करने में समर्थ होता है, वह वास्तव में आत्मविकास की दिशा में एक परिपक्व दृष्टिकोण रखता है।
बच्चा, जो अनुभव में सीमित होता है, फिर भी सहजता, सरलता और निर्दोष सत्यवाणी का स्रोत हो सकता है। बालक के वचन, चाहे वे तर्क से युक्त हों या नहीं, उनमें जीवन के सहज तत्वों की झलक हो सकती है—ऐसी सुभाषिता जो गूढ़ से गूढ़तम वाक्यों की तुलना में कहीं अधिक मार्मिक हो। यह विवेक की पराकाष्ठा है कि कोई व्यक्ति सत्य को उसकी आवरणरहित अवस्था में पहचाने, भले ही वह किसी अयोग्य समझे जाने वाले स्रोत से आया हो।
इस दृष्टिकोण से व्यक्ति अपने ज्ञान, नैतिकता और सौंदर्यबोध के प्रति अधिक सजग, ग्रहणशील और व्यापक बनता है। ग्रहणशीलता का यह सिद्धान्त केवल व्यवहारिक ही नहीं, बल्कि दार्शनिक भी है—यह व्यक्ति को अपने पूर्वग्रहों से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है।
इस प्रकार की दृष्टि, जहाँ मूल्य वस्तु के अपने गुणों में देखा जाता है न कि उसके वाहक में, एक गहन विवेकशीलता की मांग करती है। यह धारणा केवल व्यवहार के क्षेत्र में नहीं, बल्कि कला, दर्शन, राजनीति, और अध्यात्म के प्रत्येक आयाम में लागू होती है। अंततः, ग्रहण करने योग्य का चुनाव उसके सत्य, उपयोगिता और सौंदर्य के आधार पर होना चाहिए, न कि उसके उत्पत्ति-स्रोत के सामाजिक, नैतिक, या बाह्य मानकों के आधार पर।
शत्रु, जो सामान्यतः द्वेष और अविश्वास का प्रतीक होता है, वह भी कभी-कभी सद्गुण का धारक हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति केवल मित्रों से ही सीखने को स्वीकार करता है, तो वह अपने शिक्षण को एक सीमित घेरे में बाँध देता है। विपरीततः, जो व्यक्ति शत्रु के गुणों को भी ग्रहण करने में समर्थ होता है, वह वास्तव में आत्मविकास की दिशा में एक परिपक्व दृष्टिकोण रखता है।
बच्चा, जो अनुभव में सीमित होता है, फिर भी सहजता, सरलता और निर्दोष सत्यवाणी का स्रोत हो सकता है। बालक के वचन, चाहे वे तर्क से युक्त हों या नहीं, उनमें जीवन के सहज तत्वों की झलक हो सकती है—ऐसी सुभाषिता जो गूढ़ से गूढ़तम वाक्यों की तुलना में कहीं अधिक मार्मिक हो। यह विवेक की पराकाष्ठा है कि कोई व्यक्ति सत्य को उसकी आवरणरहित अवस्था में पहचाने, भले ही वह किसी अयोग्य समझे जाने वाले स्रोत से आया हो।
इस दृष्टिकोण से व्यक्ति अपने ज्ञान, नैतिकता और सौंदर्यबोध के प्रति अधिक सजग, ग्रहणशील और व्यापक बनता है। ग्रहणशीलता का यह सिद्धान्त केवल व्यवहारिक ही नहीं, बल्कि दार्शनिक भी है—यह व्यक्ति को अपने पूर्वग्रहों से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है।
इस प्रकार की दृष्टि, जहाँ मूल्य वस्तु के अपने गुणों में देखा जाता है न कि उसके वाहक में, एक गहन विवेकशीलता की मांग करती है। यह धारणा केवल व्यवहार के क्षेत्र में नहीं, बल्कि कला, दर्शन, राजनीति, और अध्यात्म के प्रत्येक आयाम में लागू होती है। अंततः, ग्रहण करने योग्य का चुनाव उसके सत्य, उपयोगिता और सौंदर्य के आधार पर होना चाहिए, न कि उसके उत्पत्ति-स्रोत के सामाजिक, नैतिक, या बाह्य मानकों के आधार पर।