श्लोक ०१-११

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
जानीयात्प्रेषणे भृत्यान्बान्धवान् व्यसनागमे ।
मित्रं चापत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥ ११॥
सेवकों को कार्य में भेजने पर, बन्धुओं को आपत्ति के समय, मित्र को संकट की घड़ी में, और पत्नी को सम्पत्ति के नाश के समय पहचाना जाता है।
मनुष्य-सम्बन्धों की वास्तविकता उनकी स्थायित्वता या बहिर्दर्शनेन प्रकट होने वाले सौहार्द में नहीं, अपितु समय और परिस्थिति की कसौटी पर टिकी होती है। व्यक्ति अपने जीवन में बहुविध सम्बन्धों से जुड़ा होता है—सेवक, बन्धु, मित्र, पत्नी—प्रत्येक सम्बन्ध सामाजिक संरचना की एक विशेष भूमिका वहन करता है। तथापि, इन सम्बन्धों की प्रामाणिकता केवल सामान्य स्थितियों में नहीं, अपितु विषमकाल में ही परिलक्षित होती है। सेवक का मूल्यांकन उसके कार्यकुशलता, निष्ठा, तथा आदेशपालन-शक्ति से होता है, किन्तु इन गुणों का सत्यापन केवल तब सम्भव होता है जब वह कार्यभार से युक्त होता है—जब उसे किसी कार्य के लिए प्रेषित किया जाता है। केवल बाह्य विनय, सेवाभाव अथवा आत्मीयता की झलक पर्याप्त नहीं; सेवा की कसौटी सेवा में ही है। बन्धु अर्थात् परिजन या कुटुम्बीजन—सामान्यतः रक्तसम्बन्धों से जुड़ा यह सम्बन्ध स्वाभाविक माने जाते हैं। किन्तु केवल रक्तसंबंध पर्याप्त नहीं होते। जब जीवन में व्यसन, अर्थात् अत्यन्त कष्ट, क्लेश, या संकट उपस्थित होता है, तब यह स्पष्ट होता है कि कौन बन्धु वास्तव में सहायक है, और कौन केवल सामाजिक औपचारिकता की सीमा में बंधा हुआ। कष्टकाल ही परीक्षण की वह आग है, जिसमें आत्मीयता की वास्तविकता झलकती है। मित्र का चरित्रापरिक्षण सामान्य अवस्था में कठिन होता है, क्योंकि मित्रता का सामाजिक व्यवहार अकसर विनोदी, मनोरंजक, अथवा सहयोगमूलक प्रतीत होता है। किन्तु जब व्यक्ति संकट में होता है—न केवल आर्थिक, अपितु मानसिक, सामाजिक, या भावनात्मक संकट में—तब ही पता चलता है कि कौन वास्तव में मित्र है। वहाँ कोई मुखविलास नहीं चलता; केवल वही साथ होता है जिसे मित्रता का वास्तविक अर्थ ज्ञात हो। पत्नी—जो धर्मशास्त्रों में अर्धाङ्गिनी मानी गई है—उसके चरित्र का परीक्षण तब होता है जब पति के पास सम्पत्ति, वैभव, सामाजिक प्रतिष्ठा अथवा भौतिक सुविधा का लोप हो जाता है। उस समय यदि स्त्री अपने पतिसम्बन्ध को केवल सामाजिक स्थिति, विलास या बाह्य सम्पन्नता से जोड़ती है, तो उसका साथ छूट जाता है। किन्तु यदि वह बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के, केवल आत्मीयता और धर्मबन्ध से जुड़ी है, तो वह स्थायिनी बनती है। यह विश्लेषण इस बात की उद्घोषणा करता है कि सामाजिक सम्बन्धों का मूल्यांकन केवल सौंदर्य, व्यवहार, अथवा वाणी से नहीं, अपितु समय की कठोर तपस्या में होता है। कोई भी सम्बन्ध स्थायी नहीं होता यदि उसमें निष्ठा, धैर्य, और परस्पर धर्मभावना न हो। साथ ही, यह भी इंगित होता है कि मानव को अपने जीवन में प्रतिपल सजग रहना चाहिए—क्योंकि जो आज मित्र दिखता है, वह संकट में पराया भी हो सकता है; और जो सामान्य में अप्रभावी प्रतीत हो, वही आपत्ति में सच्चा सहायक बन सकता है। दार्शनिक दृष्टिकोण से यह भी विचारणीय है कि 'पहचान' स्वयं में एक प्रक्रिया है—यह किसी प्रमाणपत्र की भाँति नहीं आती; यह समय, अनुभव और परीक्षण के उपरान्त विकसित होती है। सम्बन्धों के मूल्य का ज्ञान भी अनुभवजन्य है—वह पाठशाला नहीं, परिस्थिति की प्रयोगशाला में सीखा जाता है। अन्ततः, यह विवेचना हमें इस ओर उन्मुख करती है कि सम्बन्धों में स्थायित्व की अपेक्षा से पूर्व, उनकी परीक्षा की विधियाँ भी जाननी चाहिए। केवल शब्दों में बंधी मित्रता, रक्त में बंधा सम्बन्ध, विवाह में बंधा साथ, अथवा वेतन से बंधी सेवा—ये सब तभी सार्थक होते हैं जब वे जीवन की कठिनाइयों में भी अडिग रहें। अन्यथा, वे केवल छाया के समान हैं—जो प्रकाश के साथ रहती हैं, पर अन्धकार में ओझल हो जाती हैं।