श्लोक ०९-०८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अर्धाधीताश्च यैर्वेदास्तथा शूद्रान्नभोजनाः ।
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः ॥ ०९-०८॥
जो वेदों का आधा-अधूरा अध्ययन करते हैं और शूद्रों को भोजन नहीं देते, वे ब्राह्मण क्या करेंगे? वे विषहीन साँपों के समान हैं।

ज्ञान का अधूरा होना और सामाजिक कर्तव्यों का अनादर दोनों ही व्यक्तित्व और समाज के लिए घातक होते हैं। आधा-अधूरा वेद अध्ययन, अर्थात शास्त्रों के अर्ध-ज्ञान के साथ जीवित रहना, वैसा ही है जैसे जीवन की गहराई को न समझना। शास्त्रों का सम्पूर्ण ज्ञान केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि उनके अनुसार आचरण करना आवश्यक है।

शूद्रों को भोजन न देना ब्राह्मण के कर्तव्य का उल्लंघन है, जो परस्पर सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और धार्मिक कर्तव्यों का ह्रास दर्शाता है। इस प्रकार के व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था की नींव को कमजोर करते हैं। ज्ञान और कर्म में यह विषमता उनके अस्तित्व को विषहीन मगर घातक साँप की तरह बना देती है — दिखने में निर्दोष, परन्तु हानिकारक।

ब्राह्मण की पहचान केवल जन्म से नहीं, बल्कि ज्ञान और समाजोपयोगी कर्मों से होती है। यदि कोई आधा-अधूरा ज्ञान लेकर, सामाजिक दायित्वों की अवहेलना करे, तो वह अपने वर्ग का और समग्र समाज का ही क्षरण करता है। यह अधूरी शिक्षा और अधूरी श्रद्धा का प्रतिबिंब है, जो अंततः सामाजिक पतन और नैतिक क्षरण को जन्म देता है।

समाज में इस तरह के ब्राह्मणों का होना, जो आधा ज्ञान लेकर उच्च आचरण नहीं करते, वे विषहीन मगर घातक साँपों की तरह होते हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से समाज के हित में बाधा बनते हैं। यह एक चेतावनी है कि ज्ञान का अधूरा होना और सामाजिक दायित्वों की अनदेखी करना समग्र व्यवस्था को विषम परिस्थितियों में डाल देता है।

इसके अतिरिक्त, यहाँ विषहीन साँप की तुलना का गहरा अर्थ है — बाहरी रूप से वे निर्दोष प्रतीत होते हैं, परन्तु उनके कार्य सामाजिक और धार्मिक विष के समान प्रभाव डालते हैं। इसलिए, पूर्ण ज्ञान और सामाजिक कर्तव्य पालन के बिना ब्राह्मणत्व का कोई अर्थ नहीं।