परांगना कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगाः ॥ ०५-०६
इस श्लोक में मानवीय संबंधों की जटिलता और शत्रुता के स्वरूपों का विवेचन है। यहाँ शत्रुता का केवल बाह्य संघर्ष या हिंसा रूप में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तरों पर उसके विविध रूपों पर विचार किया गया है। प्रत्येक वर्ग या स्थिति के संदर्भ में शत्रुता की प्रकृति भिन्न होती है, जो उनके परस्पर संबंधों और मानसिकताओं से जुड़ी होती है।
मूर्खों के लिए विद्वान शत्रु होते हैं, क्योंकि ज्ञान उन्हें चुनौती देता है, उनके भ्रमों और अज्ञानता को उजागर करता है। अतः वे विद्वान से द्वेष करते हैं। यह द्वेष मूर्खता और ज्ञान के मध्य अंतर्निहित संघर्ष को दर्शाता है।
अधनियों के लिए महाधन वाले शत्रु होते हैं, क्योंकि धन की कमी में जो अभाव और असंतोष होता है, वह धनवानों के प्रति द्वेष उत्पन्न करता है। धन के इस सामाजिक और आर्थिक संघर्ष में द्वेष की उत्पत्ति, धन का अभाव और उसकी लालसा से जुड़ी हुई है।
परांगना कुलस्त्रियों का शत्रु होने का तात्पर्य सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं में संघर्ष से है। अन्य कुल की स्त्रियाँ, विशेषकर जब वे पराई हों, अपने स्वभाव, व्यवहार या स्थिति से किस प्रकार विरोध या शत्रुता उत्पन्न कर सकती हैं, यह सूचित किया गया है। यह विचार सामाजिक प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और परिवार के प्रति आंतरिक रक्षा की भावना को प्रतिबिंबित करता है।
अंत में, सुभग स्त्रियों के लिए दुर्भाग्यशाली स्त्रियाँ शत्रु होती हैं। यह स्थिति सौभाग्य और दुर्भाग्य के बीच के संबंध और द्वेष के मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक पहलुओं को समझाती है। सौभाग्यशाली स्त्रियों के प्रति दुर्भाग्यशाली स्त्रियों में ईर्ष्या, द्वेष और शत्रुता का भाव स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है, जो सामाजिक प्रतिस्पर्धा और स्वाभिमान के संघर्ष का प्रतिबिंब है।
यह श्लोक न केवल व्यक्तिगत संबंधों की जटिलताओं को उद्घाटित करता है, बल्कि सामाजिक संरचनाओं, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न द्वेष की सूक्ष्मताओं को भी प्रकट करता है। शत्रुता का यह विविध स्वरूप मानव व्यवहार की गहराई और उसके सामाजिक-मानसिक परतों की व्याख्या करता है।