श्लोक ०४-०५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कामधेनुगुणा विद्या ह्यकाले फलदायिनी । प्रवासे मातृसदृशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम् ॥ ०४-०५॥
कामधेनु सदृशी विद्या समयानुकूल फलदायिनी होती है। परदेश में वह माता सदृश होती है तथा विद्या को छुपाकर धन समान माना जाता है।

विद्या का स्वरूप और उसके सामाजिक एवं दार्शनिक महत्त्व की विवेचना अनेक प्राचीन ग्रन्थों में की गई है। यहां विद्या को 'कामधेनु' की उपमा दी गई है, जो एक दिव्य गाय है और जिसे इच्छित फल देने वाली माना जाता है। कामधेनु की तरह विद्या भी हर समय फलदायिनी है, अर्थात् उचित समय पर वह लाभ प्रदान करती है। 'अकाले फलदायिनी' का आशय यह है कि विद्या समयानुकूल अपने फल देती है, न कि अनियमित या अनावश्यक समय पर।

विद्या का 'प्रवासे मातृसदृशी' होना गूढ़ विचार है, जो दर्शाता है कि परदेश में विद्या माता के समान रक्षा करती है। यह संकल्पना भारतीय संस्कृतियों में मातृत्व और सुरक्षा के सन्दर्भ में विद्या को एक सुरक्षा कवच के रूप में प्रतिष्ठित करती है। यत्र व्यक्ति परदेश में होता है, वहां विद्या ही उसे मातृसदृश संरक्षण, साहस और संबल प्रदान करती है।

विद्या को 'गुप्तं धनं' मानना यह दर्शाता है कि वह बाह्य दृष्टि से स्पष्ट नहीं, किंतु अत्यन्त मूल्यवान और संरक्षित वस्तु है। जैसे धन की रक्षा आवश्यक है, वैसे ही विद्या का संरक्षण आवश्यक है। इस प्रकार विद्या एक अमूल्य संपदा है, जिसका सतत संरक्षण जीवन में समृद्धि और स्थिरता प्रदान करता है।

इस श्लोक का व्यापक दार्शनिक संदेश है कि विद्या न केवल ज्ञान है, बल्कि जीवन में समय के अनुसार लाभदायक, सुरक्षा प्रदायक और संरक्षित करने वाली अमूल्य निधि है। विद्या के संरक्षण और उचित उपयोग के बिना जीवन में स्थायित्व और सफलता असंभव है। विद्या के प्रति यह दृष्टिकोण पारंपरिक भारतीय ज्ञान परंपरा के गहरे तत्व को उद्घाटित करता है, जहाँ विद्या को केवल बाह्य शिक्षण नहीं, बल्कि जीवनोपयोगी, आत्मरक्षा और समृद्धि का आधार माना गया है।