शिशुं पालयते नित्यं तथा सज्जन-संगतिः ॥ ॥३॥
इस श्लोक में जीवन के प्रारंभिक चरण में संरक्षण एवं पोषण के महत्व को प्रकृति के उदाहरणों द्वारा दर्शाया गया है। मछली (मत्सी), कछुआ (कूर्मी), एवं पक्षी (पक्षिणी) अपने अपने स्वभावानुसार बच्चों की देखभाल करते हैं; ये प्राणी अपने बच्चों की रक्षा और पालन में अपनी दृष्टि, ध्यान, और स्पर्श को सदैव बनाये रखते हैं। इसी प्रकार, मानव समाज में भी बालक के जीवन की प्रथम आधारशिला उस सज्जनजन की संगति से स्थापित होती है, जिसमें वह बालक अपने चारों ओर से सही संस्कार, ज्ञान और संस्कार ग्रहण करता है।
प्रकृति के ये उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि बालक की संपूर्ण उन्नति के लिए मात्र भौतिक आवश्यकताएँ पर्याप्त नहीं हैं; बल्कि उसका मनोवैज्ञानिक, नैतिक एवं बौद्धिक विकास भी आवश्यक है। जिस प्रकार मछली, कछुआ एवं पक्षी अपने शिशु के प्रति सतर्क रहते हैं, उसी प्रकार सज्जनता की संगति में बालक का मन, बुद्धि एवं चरित्र निर्मित होता है।
सज्जन-संगति का महत्त्व बालक के जीवन में उस प्रकार है जैसे प्राणी जगत में मातृत्व या पालन-पोषण। सज्जनता न केवल नैतिकता एवं सदाचार की शिक्षा प्रदान करती है, बल्कि जीवन की सूक्ष्मताओं एवं व्यवहार के लिए भी मार्गदर्शक होती है। बालक की प्रथम शिक्षा उसके परिजनों, गुरुजनों और सहचर्य से होती है, जो उसके चरित्रनिर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती है।
यह श्लोक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में भी बालक पालन की परम्पराओं की महत्ता पर प्रकाश डालता है, जो केवल पोषण और संरक्षण तक सीमित नहीं, अपितु व्यक्तित्व विकास की भी आधारशिला है। अतः सज्जन-संगति को बालक के लिए एक प्रकार का आध्यात्मिक, बौद्धिक एवं नैतिक पालनकर्ता समझा जाना चाहिए। इस दृष्टि से, सज्जनता बालक की आंतरिक शक्ति और भविष्य के नैतिक तथा सामाजिक संरचना का आधार बनती है।