सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे ॥ ०३-०४ ॥
जीवन में कुछ खतरे स्पष्ट होते हैं और कुछ छिपे हुए। साँप जैसे प्राणी का भय स्पष्ट और प्रत्यक्ष होता है — वह तभी डसता है जब उसे उकसाया जाए या वह स्वयं संकट में हो। वह अपने व्यवहार में अनुमानित और सीमित होता है। इसके विपरीत, दुष्ट व्यक्ति का व्यवहार न तो अनुमानित होता है, न ही सीमित। वह अपनी प्रवृत्ति में हीन, अस्थिर और छलपूर्ण होता है, जिससे वह किसी भी क्षण, किसी भी परिस्थिति में हानि पहुँचा सकता है।
दुष्टता केवल बाह्य हिंसा में नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और नैतिक स्तर पर भी प्रकट होती है। दुष्ट व्यक्ति मित्रता के मुखौटे में शत्रुता रखता है, और अपनी बातों या कार्यों से लगातार भ्रम, भय, और अस्थिरता फैलाता है। वह किसी विशेष क्षण का इंतज़ार नहीं करता — उसकी उपस्थिति ही एक सतत संकट होती है।
सांप का विष एक बार में कार्य करता है; दुष्ट व्यक्ति का विष निरंतर, सूक्ष्म और व्यापक होता है। वह संबंधों को विषैला करता है, विश्वास को तोड़ता है, और उस ताने-बाने को बिगाड़ता है जिस पर सामाजिक संरचना टिकी होती है। साँप को नियंत्रित किया जा सकता है, पर दुष्ट व्यक्ति नियंत्रण के सारे रूपों से परे होता है क्योंकि उसकी बुद्धि, चालाकी और दुर्भावना का मेल उसे और भी घातक बना देता है।
एक प्राकृतिक संकट और एक नैतिक संकट में यही अंतर होता है — पहला दिखाई देता है, दूसरा छिपा रहता है। साँप से रक्षा के उपाय ज्ञात हैं, पर दुष्ट व्यक्ति के विरुद्ध साधन जटिल होते हैं क्योंकि वह सामाजिक रूप से स्वीकार्य चेहरों में छिपा रहता है। उसका अस्तित्व केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं, समाज के सामूहिक विवेक के लिए भी खतरा होता है।
यह तुलना इस बात पर प्रकाश डालती है कि वास्तविक भय उनसे नहीं होता जो बाहर से भयावह दिखते हैं, बल्कि उनसे होता है जो भीतर से सड़न लाते हैं, परंतु ऊपर से सामान्य प्रतीत होते हैं। साँप से भय स्वाभाविक होता है, पर दुष्ट व्यक्ति पर विश्वास कर लिया जाता है — यही सबसे बड़ा धोखा होता है।
इस प्रकार, नैतिकता की रक्षा के लिए केवल बाह्य शत्रुओं से नहीं, बल्कि छिपे हुए दुष्ट विचारों, व्यक्तियों और प्रवृत्तियों से सावधान रहना अधिक आवश्यक है। दुष्ट व्यक्ति का प्रभाव दीर्घकालिक, बहुआयामी और सामाजिक संरचना के लिए विघटनकारी होता है।