विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ॥ ॥०२-०३॥
यह श्लोक पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था में सद्गुणों एवं सामंजस्य के महत्व को प्रकट करता है। पुत्रों का वशीभूत होना केवल शक्ति या नियंत्रण का विषय नहीं, बल्कि उनके चरित्र, संस्कार, और व्यवहार में अनुशासन तथा सदाचार की प्रधानता दर्शाता है। पुत्र यदि वश में हों, तो वे न केवल परिवार के सम्मान और यश में वृद्धि करते हैं, अपितु परिवार की मर्यादा और प्रतिष्ठा को भी स्थिर करते हैं।
भार्या की छन्दानुगामिनी अर्थात् उसकी छन्दबद्ध वाणी, वर्तन और कृत्यों का शास्त्रानुसार और धर्मानुसार होना, पारिवारिक जीवन की स्थिरता और सौहार्द की आधारशिला है। पत्नी का यह स्वभाव परिवार में अनुशासन, सद्भाव और उचित आचार का द्योतक है, जो विवेकपूर्ण और संस्कारित समाज के लिए अनिवार्य है।
संतुष्ट पुरुष का जीवन समृद्धि, मानसिक शांति एवं नैतिक सामंजस्य का सूचक है। यशस्वी होना अर्थ और मान दोनों का संयोग है, जो उसके सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों के परिपालन से प्राप्त होता है।
इस प्रकार, पुत्रों का अनुशासन, पत्नी का धर्मपालन, और पति का संतुष्टि एवं यश, ये तीनों मिलकर एक पारिवारिक स्वर्ग की स्थापना करते हैं, जो इस संसार में ही परम सुख और आनंद का स्रोत है। यह जीवन के सांसारिक और आध्यात्मिक आयामों का समन्वय दर्शाता है, जहाँ स्वर्ग की अनुभूति के लिए किसी अन्य लोक की आवश्यकता नहीं रह जाती।
दार्शनिक दृष्टिकोण से यह सूचित होता है कि संसार में सुख-शांति का आधार बाह्य संसाधनों में नहीं, अपितु आंतरिक अनुशासन, सामाजिक धर्मपालन और संतोष में निहित है। स्वर्ग का अर्थ केवल परलोक नहीं, वरन् जीवन की सार्थकता और पूर्णता का अनुभूति स्थल है।
यह विचार समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है, ताकि परिवार और समाज में सद्भाव स्थापित हो, जिससे व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर स्थिरता एवं विकास संभव हो।