श्लोक १७-१८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैर्दूरीकृताः
दूरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्ध्या ।
तस्यैव गण्डयुग्ममण्डनहानिरेषा
भृंगाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति ॥ ॥१७॥
यदि दान की याचना करने वाले भौंरे, हाथी के कानों से झटके से दूर कर दिए जाएँ, और वह हाथी मदान्ध होकर ऐसा करे — तो यह उसी के गालों की शोभा की हानि है। भौंरे पुनः प्रस्फुटित कमलों के वन में वास करते हैं।

प्रकृत जीवन में गरिमा और अभिमान का द्वंद्व एक सूक्ष्म, किन्तु निर्णायक अंतर को उजागर करता है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा के गर्व में अंध होकर योग्य व्यक्तियों का अपमान करता है, वह स्वयं अपनी गरिमा की क्षति का कारण बनता है। याचक यहाँ केवल याचक नहीं, अपितु वे भौंरे हैं जो सुवासित पुष्पों पर विचरण करते हैं—उनका आगमन ही किसी को आदृत और सम्मान्य सिद्ध करता है। जब कोई दान-याचक सज्जन किसी समृद्ध के द्वार आता है, तो वह याचक केवल याचना नहीं करता, अपितु उस घर को एक अवसर देता है—सज्जनता, करुणा और उदारता के पुष्प खिलाने का।

हाथी की उपमा उस व्यक्तित्व के लिए प्रयुक्त है, जो बलवान, समृद्ध, और आत्ममुग्ध है। जब वह अपने कानों से भौंरों को दूर कर देता है, तो प्रतीक यह है कि वह स्वयं को 'दान देने' की स्थिति से ऊपर मानता है, या याचना को अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध अनुभव करता है। परन्तु इसी प्रक्रिया में वह अपने गण्डस्थल पर मंडराते उन मधुकरों को खो देता है जो उसकी शोभा के अंग थे। यहाँ गण्डयुग्म का सौंदर्य केवल भौतिक नहीं, अपितु उसकी सामाजिक छवि, उसकी उदारता की छाया, उसकी 'महानता' का अभिषेक भी है।

जो लोग सत्पात्रों का निरादर करते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि वे स्वयं अपनी छवि की क्षति कर रहे हैं। उनके द्वार से लौटे हुए भौंरे अन्यत्र प्रस्फुटित कमलों में वास पा लेते हैं—अर्थात योग्यजन अन्य कहीं प्रतिष्ठा पाते हैं, अन्यत्र सम्मानित होते हैं, और फिर उस गर्वीले के लिए उनकी अनुपस्थिति स्वयं एक हानि बन जाती है। यह न केवल सामाजिक दर्प का पतन है, अपितु एक आत्मिक हानि भी है—वह अवसर खो जाता है जहाँ देनेवाला स्वयं समृद्ध होता।

विचारणीय यह है कि क्या दान केवल याचक के लिए होता है, या दाता के लिए भी? जब कोई दाता अपने दान से स्वयं की महानता निर्मित करता है, तो क्या वह वास्तव में याचक से ही समृद्ध होता है? तब याचक का अपमान, दाता को ही निर्धन बना देता है। यह दृष्टिकोण केवल अर्थ-संवित नहीं, अपितु समग्र सामाजिक चेतना के स्तर पर है।

इस प्रकार, यह संकेत मिलता है कि शक्ति और गर्व यदि विवेकहीन हो, तो वह आत्मविनाश की ओर ले जाता है। सज्जनों का तिरस्कार करना आत्मविनाश की प्रक्रिया का आरंभ हो सकता है, क्योंकि वे ही जीवन की सौंदर्यता, आत्मिक सुवास, और सांस्कृतिक गरिमा के संवाहक होते हैं।