श्लोक १६-१५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः ।
न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम् ॥ १६-१५॥
सभी प्रकार के दान, यज्ञ, होम और बलि की क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं। परन्तु पात्रदाना और सभी प्राणियों के अभय (जीवों की रक्षा) नष्ट नहीं होता।

दान, यज्ञ, होम तथा बलि जैसे कर्मकाण्ड रूपी क्रियाएँ संसार के कर्मफल से जुड़ी हुई हैं और इसलिए वे समय के साथ नष्ट हो जाती हैं। यानि, ये बाह्य कर्मशुद्धि और धार्मिक कर्मकाण्ड समयानुसार समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि ये कर्म रूपी वस्तुएँ नित्य नहीं होतीं। यह जीवन के अस्थायी, क्षणिक कर्मों का रूप है, जो काल के प्रभाव से क्षीण हो जाते हैं।

परन्तु पात्रदाना, अर्थात् जीवों को भोजन या आवश्यक वस्तुएँ देने का दान, और जीवों को अभय देना (उनकी रक्षा करना) स्थायी है, नष्ट नहीं होता। इसका अर्थ यह है कि जीवों की रक्षा, सहानुभूति, और भिक्षादान जैसी निःस्वार्थ और अनन्त पुण्यदायिनी क्रियाएँ कालपराधीन नहीं होतीं। ये कर्म न केवल भौतिक स्तर पर फल देते हैं, अपितु जीवों के जीवन और धर्म की रक्षा हेतु अनादि-निरन्तर महत्त्वपूर्ण हैं।

यह श्लोक कर्मों के स्थायित्व और अस्थायित्व का भेद स्पष्ट करता है। बाह्य कर्मकाण्ड सीमित होते हैं और उनका प्रभाव क्षणभंगुर है, किन्तु जीवों के प्रति दया, सेवा और संरक्षण असंभाव्य तथा अनन्त पुण्य के रूप में स्थायी हैं। इस प्रकार, कर्मों की श्रेष्ठता और स्थिरता में अंतर दर्शाया गया है।

दार्शनिक दृष्टि से, यह जीवन के कर्मों के सूक्ष्म विवेचन का अंग है, जो दिखाता है कि कर्म की महत्ता केवल कर्म की संख्या या जटिलता में नहीं, अपितु उसकी भावनात्मक और जीवात्मा-सेवा में निहित है।