तत्सौहृदं यत्क्रियते परस्मिन् ।
सा प्राज्ञता या न करोति पापं
दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः ॥ ॥१५-०८॥
भोजन, कर्म, और धर्म के सन्दर्भ में यहाँ एक गूढ़ तत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भोजन केवल भौतिक आवश्यकता नहीं, बल्कि उसका सामाजिक, धार्मिक और नैतिक आयाम भी होता है। द्विजों द्वारा छोड़ा गया भोजन वह माना जाता है जो शुद्ध, पवित्र और उचित विधि से प्राप्त हो, इसलिए यह प्रतीकात्मक है उस जीवन-शैली और आचार की जो श्रेष्ठता दर्शाती है।
परस्पर सौहृद अर्थात परोपकार या दूसरों की भलाई के लिए किया गया कार्य ही सच्ची बुद्धिमत्ता और विवेकशीलता का परिचायक होता है। यदि कोई कर्म स्वार्थ या दिखावे के लिए हो, तो वह तामसी या पापात्मा कहलाने योग्य है। पाप का अभाव कर्म की शुद्धता और उसके नैतिक मूल्य को दर्शाता है।
दम्भ रहित कर्म यानी बिना अहंकार, दिखावे या छल-प्रपंच के किया गया कर्म ही सच्चा धर्म है। धर्म का आधार सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और निःस्वार्थ भावना होती है। इस दृष्टि से, दम्भ कर्म की मूल निवारक बाधा है जो कर्म को विकृत कर देता है।
प्राज्ञता और धर्म के बीच एक अनिवार्य सम्बन्ध है: बुद्धिमान व्यक्ति वे कार्य करता है जो न केवल पाप से रहित हों, बल्कि जिनमें दूसरों के प्रति सद्भाव और त्याग भी हो। इस सन्तुलन में निहित है जीवन का उच्चतम आदर्श।
यह सिद्धांत सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन दोनों में लागू होता है, जहाँ कर्म की गुणवत्ता और उद्देश्य अधिक महत्वपूर्ण होते हैं बनिस्बत मात्र परिणाम के। प्रश्न उठता है कि क्या केवल कर्म का फल देखना पर्याप्त है, या कर्म का स्वभाव, उद्देश्य और विधि भी समानतः मूल्यवान हैं? इस पर विचार मनुष्य को उसके आचरण की गहन समीक्षा के लिए प्रेरित करता है।
अंततः, बिना दम्भ के, पापरहित और परोपकारी कर्म ही समाज में स्थायित्व, न्याय और सौहार्द का आधार बनते हैं। ऐसे कर्मों से ही प्राज्ञता और धर्म की वास्तविक परिभाषा स्पष्ट होती है।