श्लोक १२-११

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा ।
शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः ॥ ॥१२-११॥
सत्य मेरी माता है, पिता ज्ञान है, धर्म मेरा भाई है, दया मेरा मित्र है, शान्ति मेरी पत्नी है, और क्षमा मेरा पुत्र है — ये छह मेरे बंधु हैं।

बंधुत्व का अर्थ केवल रक्त-संबंधों तक सीमित नहीं होता। सच्चे बंधु वे होते हैं जो मनुष्य के आंतरिक और नैतिक विकास में सहभागी होते हैं। यदि कोई व्यक्ति सत्य को माता मानता है, तो उसकी चेतना में सुरक्षा, पोषण और सत्य का पालन स्वाभाविक रूप से होता है। माता न केवल जन्म देती है, बल्कि जीवन का प्रारंभिक मूल्यबोध भी देती है — उसी प्रकार सत्य जीवन का मूलाधार है।

पिता के रूप में ज्ञान की कल्पना यह दर्शाती है कि मनुष्य की स्थायित्वपूर्ण उन्नति का स्रोत ज्ञान है, न कि केवल जैविक वंश। वह व्यक्ति जो ज्ञान को पिता मानता है, अनुशासन, परंपरा, और विचारों की उत्तराधिकारिता को स्वीकार करता है। धर्म को भ्राता कहने का तात्पर्य है कि धार्मिक चेतना जीवन में वही स्थान रखती है जो एक भाई — समान, साहचर्यपूर्ण और रक्षक। धर्म अकेले व्यक्ति का नहीं, पूरे समाज का संतुलन बनाए रखता है, जैसे एक बड़ा भाई छोटे भाई की रक्षा करता है।

दया को मित्र मानने का भाव यह स्पष्ट करता है कि करुणा ही वह तत्व है जो मानव को अन्य प्राणियों से भिन्न बनाता है। बिना दया के संबंध स्वार्थ में सड़ जाते हैं; दया वह पुल है जो अहंकार से परे जुड़ाव की अनुभूति कराता है। शान्ति को पत्नी मानना केवल एक प्रतीक नहीं, एक आदर्श है — कि जीवन का सबसे अंतरंग संबंध शान्ति से हो। जहाँ शान्ति नहीं, वहाँ प्रेम, संतुलन और जीवन की स्थिरता संभव नहीं। क्षमा को पुत्र के रूप में देखने का अर्थ यह है कि हमारी क्रियाओं से यदि कोई मूल्य जन्म लेना चाहिए, तो वह क्षमा हो।

इन छह बंधुओं की परिकल्पना में एक वैकल्पिक सामाजिक संरचना निहित है — ऐसी संरचना जो आंतरिक मूल्यों को बाह्य संबंधों से अधिक महत्व देती है। जब व्यक्ति इन बंधनों से जुड़ता है, तो उसका चरित्र किसी धर्मशास्त्र से अधिक प्रभावशाली बनता है। यह वह संबंध हैं जिन्हें कोई जन्म या वंश तय नहीं करता — ये तो व्यक्ति स्वयं चुनता है, आत्मा की चेतना से।

यह दृष्टिकोण समकालीन समाज के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण प्रश्न उपस्थित करता है — यदि किसी का परिवार इन मूल्यों से रहित है, तो क्या वह अकेला है? या क्या वह जो सत्य, ज्ञान, धर्म, दया, शान्ति और क्षमा से जुड़ा है, वास्तव में संपन्न है? यह परिभाषा मनुष्य को उसके आत्मिक स्वराज्य की ओर ले जाती है, जहाँ उसके बंधु रक्त से नहीं, मूल्य से परिभाषित होते हैं।