स तं सदा निन्दति नात्र चित्रम् ।
यथा किराती करिकुम्भलब्धां
मुक्तां परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाम् ॥ ॥११-०८॥
जब कोई व्यक्ति किसी के गुणों या क्षमताओं की प्रगति को समझने में असमर्थ होता है, तो वह स्वाभाविक रूप से उस व्यक्ति की निन्दा करता है। यह मनोवैज्ञानिक और सामाजिक व्यवहार की एक सामान्य प्रवृत्ति है। उस व्यक्ति के लिए, जो अपने भीतर गहरी समझ या व्यापक दृष्टि नहीं रखता, दूसरों की सफलता, प्रगति, या गुण वृद्धि को देखना एक झटका या असहजता उत्पन्न करता है, जिससे निन्दा का प्रवाह सहज रूप से उत्पन्न होता है।
इसमें कोई विचित्रता नहीं कि ऐसे लोग हमेशा आलोचना करते रहें क्योंकि वे वस्तुतः यह समझ नहीं पाते कि सामने वाला व्यक्ति किस प्रकार की उपलब्धि या गुणों में उत्कर्ष कर रहा है। निन्दा उनके मानसिक असंतोष या अस्वीकृति का प्रकटीकरण मात्र है।
दूसरी ओर, उदाहरण के रूप में किरातों का व्यवहार दर्शाया गया है, जो अपने लिए मिली काली मणि (मोती) को त्यागकर मणि माला पहनते हैं। यह प्रतीकात्मक रूप में यह बताता है कि वे जो मूल्य या वस्तु उन्हें प्राप्त होती है, उसे पहचानने, समझने और उसे अपना बनाने में असफल रहते हैं, इसलिए वह उन्हें त्याग देते हैं और कम मूल्यवान वस्तु को धारण करते हैं। यह मनुष्य के उस व्यवहार का एक रूपक है जहाँ वह सही मूल्य को नहीं पहचान पाता और नतीजतन, असत्य या कम मूल्यवान वस्तु को ही अपनाता है।
गुणों और उनकी वृद्धि की समझ में असमर्थता व्यक्ति को अज्ञान, ईर्ष्या और पूर्वाग्रह की ओर ले जाती है। ऐसी मानसिकता से व्यक्ति सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर विफल होता है क्योंकि वह अपने और दूसरों के विकास का अवरोधक बन जाता है। यही कारण है कि ज्ञान, समझ और विवेक का विकास अनिवार्य होता है ताकि निन्दा की जगह प्रशंसा और प्रोत्साहन का वातावरण बन सके।
इसका दार्शनिक आयाम भी गहरा है क्योंकि यह व्यक्ति के दृष्टिकोण, अनुभूति और मूल्यांकन की सीमाओं को उजागर करता है। यह सवाल उठता है कि क्या हम अपने संकीर्ण दृष्टिकोण से परे जाकर वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के वास्तविक मूल्य को समझने की कोशिश करते हैं? या केवल सतही दृष्टि और पूर्वाग्रह से निर्णय करते हैं? इसी से हमारा व्यवहार और समाज का स्वरूप निर्मित होता है।