श्लोक ११-०७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
न दुर्जनः साधुदशामुपैति
बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः ।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन
न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति ॥ ॥११॥
दुष्ट व्यक्ति अनेक प्रकार की शिक्षाएँ प्राप्त करने के बाद भी भले व्यक्तियों के समान नहीं होता। जिस प्रकार जड़ से धोया हुआ नींबू का वृक्ष दूध या घी से भी मीठा नहीं होता।

यह विचार न केवल मनोविज्ञान का सटीक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, बल्कि व्यवहार और चरित्र के निर्माण में अन्तर्निहित वास्तविकता को भी उद्घाटित करता है। अनेक बार देखा गया है कि दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी भी शिक्षाएँ प्राप्त कर ले, वह सही अर्थ में साधु नहीं बन पाता। क्योंकि दुष्टता उसकी स्वभाव की गहरी जड़ होती है, जिसे सरल सतह के प्रयासों से हटाना संभव नहीं होता।

शिक्षा का प्रभाव तभी सार्थक होता है जब वह अन्तःकरण में परिवर्तन लाए, चरित्र को निर्मल करे और विचारों को शुद्ध करे। दुष्टता के मूल को जो ‘आमूल’ कहा गया है, वह जड़ की तरह है। यदि जड़ से ही कोई वृक्ष दूषित या विषैला हो, तो उसकी शाखाएँ, फल, और पत्तियाँ जितनी भी सुंदर या उपकारी क्यों न लगें, वास्तविकता में वह वृक्ष स्वाभाविक नहीं हो सकता। इसी प्रकार, दुष्ट मनुष्य को अनेक प्रकार की शिक्षाओं से सजाया-धजाया जा सकता है, परन्तु वह सद्गुणों से परिपूर्ण साधु का रूप नहीं धारण कर सकता।

नींबू वृक्ष का उदाहरण अत्यंत सूक्ष्म और सटीक है। किसी भी पेड़ को दूध या घी से धोना उसके स्वाभाविक स्वाद या गुण को नहीं बदल सकता। स्वाद का निर्धारण उसके आनुवंशिक और प्राकृतिक तत्वों द्वारा होता है, जो जड़ से जुड़ा होता है। यद्यपि बाहरी तत्व उसे प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन मूल गुण वहीं रहता है। इस दृष्यात्मकता से यह समझना आसान है कि दुष्टता की जड़ को नहीं छुड़ा कर, किसी भी शिक्षण, सुधार या नीति-निर्देश का सार्थक परिवर्तन संभव नहीं।

यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि क्या बाहरी शिक्षाएं निरर्थक हैं? नहीं, शिक्षाएं आवश्यक हैं परन्तु वे तभी सफल होंगी जब उनका प्रभाव मन के गहरे स्तर तक पहुंचे और अंतर्मन की दुष्टता का नाश करें। शिक्षा की महत्ता तभी बनती है जब वह चरित्र का निर्माण करे, और केवल सतही सुधार या दिखावे के लिए न हो।

इसके अलावा यह शास्त्रीय दृष्टिकोण जीवन की सच्चाई से कोई छुपाव नहीं करता। यह स्वीकार करता है कि परिवर्तन सरल प्रक्रिया नहीं, बल्कि जटिल और गहन प्रयास का विषय है। सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर असाध्य दोषों का निर्मूलन कठिन होता है, और इसे धैर्य, समय और सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।

दुष्टता की जड़ से मुक्ति न मिलने पर न तो व्यक्ति स्वयं की और न समाज की भलाई संभव है। एक दुष्ट व्यक्ति किसी भी शिक्षण के बाद भी समान नहीं होता, और यह समानता केवल सतही और दिखावटी हो सकती है।

इसलिए, शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि वह गहन परिवर्तन है जो व्यक्ति के मूल स्वरूप को बदल सके, उसे एक नए रूप में उभार सके, और उसकी स्वाभाविकता में परिमार्जन कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में, बाहरी शुद्धता या शिक्षण से अधिक महत्वपूर्ण है अंतर्मन की शुद्धता।