श्लोक ११-१२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा ।
ऋतुकालाभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते ॥ ११-१२॥
जो व्यक्ति एक ही भोजन से संतुष्ट रहता है, जो छह प्रकार के कर्मों में सदैव लीन रहता है, और जो ऋतु के समय अनुसार काम करता है, वही विप्र अर्थात् द्विज कहलाता है।

संतोष और संयम के बिना व्यक्ति का चरित्र पूर्ण नहीं माना जा सकता। एकाहार से तात्पर्य केवल भोजन की मात्रा से नहीं, बल्कि साधारण, सादगीपूर्ण और सीमित भक्षण से है, जो लालसा और आसक्ति को नियंत्रित करता है। जब कोई व्यक्ति अपने भक्षण में संयम रखता है, तो वह मन, वाणी और शरीर की शुद्धि और नियंत्रण की ओर अग्रसर होता है।

षट्कर्मों में निरत रहने का अर्थ है व्यक्ति का जीवन छह प्रकार के कर्मों—आत्मशुद्धि, ब्रह्मचर्य, दान, तप, अध्ययन और ध्यान—में समर्पित रहना। यह समर्पण न केवल कर्मठता का परिचायक है, बल्कि जीवन के उच्चतम लक्ष्य की ओर अग्रसरता का भी प्रमाण है। यह कर्मों का पालन व्यक्ति को स्थिरता, अनुशासन और धार्मिकता प्रदान करता है।

ऋतुकालाभिगामी का अर्थ है ऋतुओं के अनुकूल समय पर उचित क्रियाएं करना। इसका भाव है कि हर कार्य का अपना समय और उचित अवसर होता है, और ज्ञानी व्यक्ति उसे जानकर कर्म करता है। यह जीवन में अनुशासन और नियमन की आवश्यकता को इंगित करता है। बिना समयबद्धता और अनुशासन के प्रयास विफल हो जाते हैं।

द्विज शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'दो बार जन्मा'—पहला जन्म शारीरिक और दूसरा ज्ञान और कर्मों के द्वारा होता है। इस श्लोक में द्विज की परिभाषा सादगी, कर्मठता और समय की समझ के संदर्भ में की गई है। यह स्पष्ट करता है कि द्विजत्व केवल जन्म से नहीं, बल्कि गुणों और आचरण से प्राप्त होता है।

साधारण जीवन, सात्विक कर्म, और समय का सम्मान व्यक्ति को आध्यात्मिक और सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित बनाते हैं। यह आध्यात्मिक श्रेष्ठता का परिचायक है जो सांसारिक आडंबरों से दूर, सच्चे ज्ञान और कर्म के माध्यम से प्राप्त होती है। संयम, कर्मशीलता और समयबद्धता के बिना व्यक्ति केवल बाह्य रूप से विद्वान हो सकता है, परन्तु द्विजत्व प्राप्त नहीं कर सकता।

यहां प्रश्न उठता है—क्या केवल जन्म से द्विजत्व सुनिश्चित होता है? या वास्तविक द्विजत्व तो कर्म, संयम और विवेक से उत्पन्न होता है? व्यक्ति का आचरण और स्वभाव उसकी सच्ची पहचान करते हैं, न कि केवल उसकी जन्मजात स्थिति। इस दृष्टि से, जीवन का हर क्षण कर्म के लिए समर्पित होना, संयमित आहार लेना, और समय का सम्मान करना ही वास्तविक श्रेष्ठता है।