श्लोक १०-०५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
रङ्कं करोति राजानं राजानं रङ्कमेव च ।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः ॥ १०-०५॥
राजा ही किसी को नीचा बनाता है, और वह व्यक्ति भी नीच हो जाता है। धनवान किसी को निर्धन बनाता है, और निर्धन व्यक्ति भी धनवान बनने का नियम है।

राजा या धनवान व्यक्ति की शक्ति केवल बाहरी नहीं होती, वह सामाजिक और मानसिक स्तर पर भी अत्यंत प्रभावशाली होती है। जब कोई राजा किसी को नीचा दिखाता या नीचे गिराता है, तो इसका प्रभाव केवल उस व्यक्ति पर ही नहीं, बल्कि उस स्थिति में गिरावट को स्वीकार करने वाले स्वयं राजा के चरित्र और सत्ता पर भी पड़ता है। ऐसा क्यों? क्योंकि नीचता का संचार केवल एकतरफा नहीं रहता, वह सामाजिक व्यवस्था, न्याय, और स्वयं शासक के नैतिक अधिकारों को भी प्रभावित करता है।

राज्य और सत्ता के दायरे में गिरावट एक चक्रीय प्रक्रिया है। यदि एक राजा दूसरों को नीचा दिखाता है, तो वह स्वयं भी उसी नीचता में गिर सकता है, क्योंकि सत्ता और सम्मान का आधार केवल न्याय, धर्म, और लोक-कल्याण में निहित होता है। न्याय के बिना, सत्ता का पतन अपरिहार्य है।

धन और निर्धनता के बीच भी समान व्यवहार लागू होता है। धनवान व्यक्ति का निर्धन को कमजोर बनाना सामाजिक असंतुलन को बढ़ाता है, लेकिन अंततः निर्धन व्यक्ति के पास भी धनवान बनने का मार्ग, या नियम विद्यमान होता है। यह नियम आर्थिक और सामाजिक गतिशीलता का संकेत है, जो बताता है कि कोई भी स्थिति स्थायी नहीं होती। निर्धनता में भी शक्ति और अवसर छिपे होते हैं, जो सही नियम, कर्म, और नीति द्वारा धन में परिणत हो सकते हैं।

यह नियम, या विधि, यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक और आर्थिक परतों में परिवर्तन निरंतर होता रहता है। कोई भी वर्ग, चाहे वह राजशाही हो या आर्थिक, पूर्णतया स्थायी नहीं रहता। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक परिवर्तन और न्याय का नियम सदा बना रहता है, जो एक तरह से सत्ता और संपदा के आदान-प्रदान को नियंत्रित करता है।

यह अवधारणा हमें सत्ता और धन के संबंधों की गहराई से परिचित कराती है, जहाँ प्रत्येक स्थिति में परिवर्तन और समता के बीज अंतर्निहित होते हैं। कोई भी व्यक्ति या वर्ग अत्यधिक ऊँचा उठकर स्थिर नहीं रह सकता; न ही कोई सदैव नीचा रह सकता है। इस चक्र को समझना ही सत्ताधारियों और समाज के लिए आवश्यक है, जिससे वे अहंकार या अत्याचार से बचें और न्याय तथा नीति के अनुसार शासन करें।

इसलिए, सत्ता का दुरुपयोग और सामाजिक असंतुलन अंततः खुद सत्ता और समृद्धि के पतन की ओर ले जाते हैं। हर स्थिति में नियम, व्यवस्था, और धर्म की अनिवार्यता विद्यमान रहती है, जो व्यक्ति और समाज दोनों को उनके कर्मों का फल देती है।