राजद्वेषाद्भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात्कुलक्षयः ॥ १०-११॥
मनुष्यों के संबंधों में द्वेष का स्वरूप और उसका परिणाम अत्यंत गंभीर होता है। अपने प्रियजनों से द्वेष, अर्थात परिवार, मित्र या सगे संबंधियों के बीच द्वेष उत्पन्न होना जीवन की सबसे विनाशकारी परिस्थिति होती है, जो आध्यात्मिक और मानसिक दृष्टि से मृत्यु समान पीड़ा और पतन लाती है। क्योंकि प्रेम और स्नेह के बिन जीवन सूना और शून्य हो जाता है, इसलिए अपने आपसी द्वेष से मनुष्य का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है।
परद्वेष का अर्थ है बाहरी, अपरिचित या शत्रु से द्वेष रखना। इस द्वेष से धन का नाश होता है क्योंकि वैमनस्य और शत्रुता के कारण आर्थिक और सामाजिक संसाधनों का ह्रास होता है। ऐसे द्वेष से मनुष्य के बाहरी संसाधन क्षीण हो जाते हैं, जो धन की हानि के रूप में प्रत्यक्ष होती है।
राजद्वेष का मतलब है राजा या राज्यप्रमुख से द्वेष। यह सबसे अधिक विनाशकारी द्वेष है क्योंकि राज्य के प्रति द्वेष व्यक्ति और समाज के समग्र नाश का कारण बनता है। जब शासन के प्रति द्वेष या असहमति बढ़ती है, तो सामाजिक व्यवस्था क्षीण होती है और अराजकता, दंगों तथा भ्रष्टाचार का जन्म होता है, जो समस्त राज्य और समाज के विनाश का कारण बनता है।
ब्रह्मद्वेष, अर्थात् ब्राह्मण या धार्मिक गुरु से द्वेष, कुल और वंश के क्षय का कारण बनता है। ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधि होते हैं, जो धार्मिक, संस्कृतिक, और सामाजिक मर्यादाओं के संरक्षक माने जाते हैं। यदि उनके प्रति द्वेष उत्पन्न हो, तो सामाजिक-सांस्कृतिक पतन और कुलों का विनाश होना निश्चित है। यह द्वेष एक प्रकार का सांस्कृतिक क्षरण है, जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए विनाशकारी प्रभाव छोड़ता है।
यह विचार कर देखना आवश्यक है कि द्वेष के ये चार प्रकार जीवन के विभिन्न स्तरों पर किस प्रकार प्रभाव डालते हैं। अपने से जुड़ी भावना का द्वेष आत्मा को मृत्यु के समान चोट पहुँचाता है; बाहरी शत्रुता से आर्थिक स्थिति गिरती है; शासन के प्रति द्वेष से व्यवस्था और सामाजिक स्थिरता नष्ट होती है; और धार्मिक, सांस्कृतिक गुरुओं के प्रति द्वेष से परंपरा और कुलों का संहार होता है। द्वेष के ये भेद और उनके परिणाम न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करते हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र के अस्तित्व को भी खतरे में डालते हैं।
द्वेष के इस वर्गीकरण से यह स्पष्ट होता है कि द्वेष मात्र भाव नहीं बल्कि एक विनाशकारी शक्ति है, जो जहाँ उत्पन्न होती है, वहाँ जीवन के स्तम्भों को कमजोर कर देती है। यह द्वेष का भाव व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और संस्कृति—हर स्तर पर विनाशकारी प्रभाव डालता है। इसलिए द्वेष से परहेज और सहिष्णुता का विकास आवश्यक है ताकि जीवन के ये स्तम्भ स्थिर और स्वस्थ रह सकें।