श्लोक ११-१०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कामक्रोधौ तथा लोभं स्वादुशृङ्गारकौतुके ।
अतिनिद्रातिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत् ॥ ॥११-१०॥
काम, क्रोध, लोभ, स्वादु (रसालुता), श्रृङ्गार (कामुकता) तथा कौतुक (जिज्ञासा या उत्सुकता) और अत्यधिक निद्रा तथा अत्यधिक सेवा (आलस्य) को विद्यार्थी को नष्ट समझकर त्याग देना चाहिए।

इच्छा, क्रोध और लोभ जैसे मानसिक विकार व्यक्ति के ज्ञानार्जन और समग्र विकास में सबसे बड़े बाधक होते हैं। ये वे भाव हैं जो मन को व्याकुल, अस्थिर और एकाग्रता-विहीन बना देते हैं। विद्यार्थी के लिए काम और क्रोध का त्याग अनिवार्य है क्योंकि ये मन को भ्रमित करते हुए बुद्धि के विवेक को धुंधला कर देते हैं।

स्वादु और श्रृङ्गारकौतुक जैसे भावों का अत्यधिक प्रभाव भी अध्ययन में विघ्न उत्पन्न करता है। स्वादुता का अर्थ है सुखासक्ति और सांसारिक रसों का भोग करने की प्रवृत्ति, जबकि श्रृङ्गारकौतुक से अभिप्राय कामुकता तथा व्यर्थ की जिज्ञासा या आसक्तियाँ हैं। ये ललकें ज्ञान की गहनता से ध्यान भटकाती हैं और विद्या में गहनता की बाधा बनती हैं।

अत्यधिक निद्रा तथा अत्यधिक सेवा अर्थात् आलस्य भी विद्यार्थी के लिए हानिकारक हैं। अति निद्रा से चेतना की स्थिति धीमी पड़ जाती है, जिससे अध्ययन की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अति सेवा से तात्पर्य है शरीर तथा मन को आराम देने में अत्यधिक लिप्तता, जो अध्ययन की सक्रियता को कम कर देती है। आलस्य मनुष्य को निष्क्रिय, सुस्त और अनुत्पादक बनाता है।

इन सात दोषों का त्याग विद्यार्थी को आत्मनियंत्रण, ध्यान-एकाग्रता और बुद्धिमत्ता की ओर ले जाता है। मन के ये विकार मानव को नष्ट ही करते हैं, इसलिए इन्हें हानिकारक और नष्ट करने वाले तत्व के रूप में देखना चाहिए। यह त्याग न केवल अध्ययन के लिए आवश्यक है, बल्कि जीवन में सफल और संतुलित व्यक्तित्व के निर्माण के लिए भी अनिवार्य है।

विद्यार्थी का लक्ष्य केवल ज्ञान प्राप्ति नहीं, बल्कि ज्ञान के सही और प्रभावी उपयोग में सक्षम होना भी है। जब ये दोष मन से दूर हो जाते हैं, तभी शुद्ध बुद्धि और आत्मनियंत्रण संभव होता है। यही कारण है कि इन दोषों का त्याग एक अनिवार्य नियम के रूप में प्रस्तुत किया गया है।